जरा सोचिये आप अपने कमरे में अकेले है पर आप पर कोई चौबीसों घंटे नज़र टिकाये बैठा है आपकी हर हरकत पर उसकी नज़र है। वह आपको आपसे बेहतर जानता है, आपको अपने हिसाब से सोचने पर मजबूर करने में पूरी तरह से काबिल है, आपके खाने पीने की फेवरेट डिशेस से लेकर आपके कपड़ों की पसंद और आपकी धार्मिक और राजनैतिक पहलू पर भी उसकी पूरी पकड़ है। मेरी बातों से आपने अंदाजा लगा ही लिया होगा की हम किस के बारे में बात कर रहे है जी हाँ वह है सोशल मीडिया
क्या है सोशल मीडिया?
२१वीं सदी एक डिजिटल किताब है और उसमे जुड़ा है एक नया अध्याय सोशल मीडिया, यह शब्द ज्यादातर लोगों ने सुना ही होगा और शायद मुझे इसको प्रभाषित करने की जरुरत नहीं है। इसकी शुरुवात हुई १९९७ में जब पहली पहचानने योग्य सोशल मीडिया साइट, जिस प्रारूप में हम आज जानते हैं, वह सिक्स डिग्रीज़ थी - 1997 में बनाया गया एक प्लेटफ़ॉर्म जो एक यूजर को प्रोफ़ाइल अपलोड करने और अन्य यूजर के साथ दोस्ती करने में सक्षम बनाता था। साल बदले और २००० के दशक में सोशल मीडिया का मानो जैसे विस्फोट सा हो गया। फेसबुक, इंस्टाग्राम, लिंकेडीन, टिकटोक, स्नैपचैट और भी बहुत से प्लेटफार्म है और साल दर साल नए नए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स लोगों के सामने पेश किये जा रहे है। आज की इस डिजिटल दुनिया में सोशल मीडिया इंसानो के लिए उनकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन गया है। तेज़ी से बढ़ती और बदलती टेक्नोलॉजी ने सोशल मीडिया का रूप ही बदल दिया है। सोशल मीडिया एक परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में खड़ा है, जो संबंधों को जोड़ता है, विचारों को आकार देता है और समाज की जटिल बारीकियों को दर्शाता है। जैसे-जैसे हम इस डिजिटल परिदृश्य में आगे बढ़ते हैं, हमारे जीवन पर सोशल मीडिया का प्रभाव तेजी से स्पष्ट होता जाता है, जिससे कनेक्टिविटी के वादे और इसके प्रभाव के नुकसान दोनों का पता चलता है। अपने विचारों को साझा करना, अपनी बातों को करोड़ों लोग के समाने रखने के लिए सोशल मीडिया एक बेहतरीन विकल्प है। सोशल मीडिया बनानी वाली कम्पनीज ओर लोगों ने इसका उद्देश्य सिर्फ लोगों ओर देश की भलाई सोचा होगा पर क्या यह सच में भलाई कर रही है या इसका लक्ष्य कुछ और ही है। चलिए जानते है सोशल मीडिया का सच आज के लेख सोशल मीडिया - एक माया जाल में।
सोशल मीडिया: एक माया जाल
शुरुवाती दौर में सोशल मीडिया के ऍप्लिकेशन्स और स्मार्ट फ़ोन दो अलग अलग चीज़ें थी पर जैसे जैसे टेक्नोलॉजी का विस्तार हुआ स्मार्ट फ़ोन और स्मार्ट हो गए और सोशल मीडिया को और बेहतरीन और आकर्षक रूप में पेश किया गया। सोशल मीडिया को इस तरह डिज़ाइन किया जा रहा है जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग इसका इस्तेमाल करें और ज्यादा से ज्यादा समय उन प्लेटफार्म पर रहे है। आज के समय अगर आप कोई भी नया स्मार्ट फ़ोन खरीदते है तो उसमे पहले से ही सोशल मीडिया के कुछ ऍप्लिकेशन्स उसमे इनस्टॉल या मौजूद मिलेंगे और वह भी पूरी तरह से मुफ्त। हम सब जानते है की सोशल मीडिया के एप्स पूरी तरह से मुफ्त और आसानी से मिलते है लोग अक्सर यही सोचते है की सोशल मीडिया हमारे लिए है पर सच्चाई थोड़ी हट के है, आपके लिए सोशल मीडिया नहीं बना बल्कि आप सोशल मीडिया के लिए बनते जा रहे है। स्मार्टफोन को चलाने वाला हर एक आम आदमी अपने फ़ोन को कम से कम एक दिन में ५० बार देखता है। सोशल मीडिया का एक एक्टिव यूजर २४ घंटों में से औसतन २:२० घंटे सिर्फ सोशल मीडिया पर बीता देता है। अप्रैल २०२४ में एक शोध के मुताबिक विश्व की कुल आबादी में से ६२.६% यानी ५.०७ बिलियन लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते है, पिछले साल २५९ मिलियन नई यूजर ने सोशल मीडिया को ज्वाइन किया है और यह संख्या बढ़ते ही जा रही है। १८ वर्ष और उससे अधिक उम्र वाले ८६.१% लोग सोशल मीडिया पर एक्टिव है। हाल ही के डेटा से पता चला है की भारत में अकेले ही ४६.२ करोड़ एक्टिव यूजर सोशल मीडिया पर मौजूद है। ऎप स्टोर पर किसी भी सोशल मीडिया ऎप के डाउनलोड का मिलियन-बिलियन में होना और इन एप्स का मुफ्त में मिलना स्मार्ट फ़ोन यूजर को अपनी ओर आकर्षित करता है और वह इंसान उस सोशल मीडिया के ऎप को डाउनलोड कर उसको इस्तेमाल करने लगता है और कुछ समय बाद यह उनकी आदत और फिर उनकी लत बन जाती है।
सोशल मीडिया बनानी वाली कम्पनीज साइकोलॉजी तौर पर डीप रिसर्च करती रहती है और अपने एप्स में ऐसे ऐसे बदलाव या फीचर्स ऐड करती है जिनसे उन एप्स को इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति उन एप्स का एडिक्ट हो जाए। सोशल मीडिया एप्लीकेशन के दूसरी ओर बैठे इंजीनियर को यह अच्छे से पता है की इंसानी जज़्बात को कैसे इस्तेमाल करना है, कैसे उनके दिमाग को डाइवर्ट करना है जिस से वह एप्लीकेशन को बंद न करे और उन ऍप्लिकेशन्स पर हमेशा ऑनलाइन रहे। जब भी हम किसी वीडियो को लायक करते है या कमेंट करते है, या मात्र सिर्फ देख लेते है तो इन सोशल मीडिया का प्रोग्रामिंग और एल्गोरिदम आपको बार बार उसी तरह की वीडियो या पोस्ट को दिखायेगा और हम हर बार उन वीडियो और पोस्ट को देखते ही रहते है अनलिमिटेड स्क्रॉलिंग होते ही चले जायेगी न वीडिओज़ का अंत होगा और न ही पोस्ट का। लोगों को इस सोशल मीडिया की ऐसी लत सी लग गयी है, वह अपने अपलोड किये फोटोज-वीडिओज़ पर लोगो के रिएक्शन, लाइक कमैंट्स के लिए हमेशा तरसते रहते है और एक बार हम अगर इन सोशल मीडिया से दूर भी रहना चाहे तो भी यह हमें नोटिफिकेशन भेज देते है। उदहारण के तौर पर फोटो टैगिंग का मैसेज या मेल भेज कर हमें अपनी ओर खींचने की पूरी कोशिश करते है और उनकी यह कोशिश कामयाब भी हो जाती है। वर्चुअल दुनिया में लोगो इतने खो गए है उन्हें वास्तविक दुनिया की कोई खबर नहीं है,असल ज़िंदगी में इंसान चाहे किसी भी हालात में क्यों न हो पर सोशल मीडिया पर वह हमेशा खुश नज़र आते है और यहीं से कम्पेरिजन का दौर शुरू होता दूसरी की फ़िल्टर लगायी हुई फोटो और वीडिओज़ देख कर लोग खुद को उस इंसान से कम्पैयर करने लग जाते है और खुद को उनसे बेहतर दिखाने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते है। जब किसी यूजर को उसकी अपलोड की गयी फोटोज और वीडिओज़ पर उसके मुताबिक़ लाइक, कमैंट्स और शेयर नहीं मिलते तो वह फिर से नयी फोटोज और वीडिओज़ को अपलोड कर देता है और यह सिलसिला चलते ही रहता है।
सोशल मीडिया और मेन्टल हेल्थ
1. डीप्रेशन में बढ़ोतरी | Increase In Depression
"बस इतने कमैंट्स और लाइक्स चलो एक नयी फोटो/वीडियो अपलोड करता हूँ" अगर आप एक एक्टिव सोशल मीडिया यूजर है तो ऐसा आपके साथ कभी न कभी हुआ ही होगा, यह वर्चुअल लाइक्स और कमैंट्स को एक यूजर इतना महत्व क्यों देता है? जवाब बड़ा ही सिंपल सा है हम इंसानो की यह फिदरत है की हमें अपनी तारीफ़ बहुत पसंद है, तारीफ सुन कर और पढ़कर हमारी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। सोशल मीडिया ने पूरी तरह से आपके लाइफ का कण्ट्रोल अपने हाथ में ले रखा है, मेडिकल साइंस के मुताबिक आपकी फोटोज और वीडिओज़ पर जब भी कोई लायक या कमेंट करता है तो उसे देखकर या पढ़कर आप बहुत खुश और रिलैक्स होते है इन सबके दौरान हमारे ब्रेन से एक केमिकल रिलीज़ होता है जिसे डोपेमिन कहते है, आपको यह बात जान कर हैरानी होगी की सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते वक़्त जो डोपेमिन रिलीज़ होता है उसकी मात्रा उतनी ही होती है जितनी कोकेन इस्तेमाल करने से होती है। सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर हमारे मेन्टल हेल्थ पर पड़ता है जब सोशल मीडिया पर आप किसी शक़्स को बेहद खुश और मौज मस्ती करते हुए देखते है तो आपकी भी चाहत वैसा करने के लिए बढ़ जाती है। लोग अक्सर अपने जीवन की मुख्य बातें पोस्ट करते हैं, जिन्हे देखकर दूसरों को उनकी तुलना में हीन या कम सफल महसूस होता है। इस घटना को "सामाजिक तुलना" के रूप में जाना जाता है। दूसरों की सोशल मीडिया की फेक ज़िन्दगी को देख कर हम लोग खुद को उनसे कम्पयेर करने लग जाते है और धीरे-धीरे मेन्टल हेल्थ को खराब कर देते है। यहीं से शुरुवात होती है डिप्रेशन की। सोशल मीडिया के लगातार इस्तेमाल से युवको में डिप्रेशन, चिंता और अकेलापन बढ़ता जा रहा है।
2. सुसाइड की बढ़ती दरे | Rise In Suicides
एक्सपर्ट्स का कहना है की अमेरिकन टीनएजर्स में बेताबी और डिप्प्रेशन जो साल २०११ और २०१३ के बीच बढ़ाना शुरू हुए थे वह बहुत तेज़ी से बढ़ रहे है, अमेरिका में खुद पर आत्मघाती हमला कर के हॉस्पिटल में भर्ती होने वाली लड़कियों की संख्या २०१० और २०११ तक तो स्थायी थी पर उसके बाद बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी है। बड़ी टीनेज लड़कियों (१५ से १९ वर्ष ) की संख्या ६२% बढ़ी है और छोटी टीनेज लड़कियों (१० से १४ वर्ष) में १८९% करीब तीन गुना। इस से खौफनाक बात यह ही की खुदखुशियों में यही रुझान देखने को मिलता है। १५ से १९ वर्ष लड़कियों यह आंकड़ा सदी के पहले दशक से ७०% प्रतिशत ज्यादा है और बहुत छोटे दर में रही १० से १४ साल की लड़कियों में ये संख्या १५१% बढ़ा है इस रुझान का सीधा सीधा इशारा सोशल मीडिया की तरफ है। GEN -Z यानी जो बच्चे १९९६ के करीब पैदा हुए है यह इतिहास की पहली पीढ़ी है जिन्हे मिडिल स्कूल में ही सोशल मीडिया मिल गया। इसलिए ये पूरी पीढ़ी ज्यादा बेताब ज्यादा नाज़ुक और ज्यादा ही उदास है।
3. फियर ऑफ़ मिसिंग आउट | FOMO
सोशल मीडिया से "खो जाने का डर" (FOMO) की भावना का उत्पन्न होना जैसे आम बात सी हो गयी है। जब हम दोस्तों या रिश्तेदारों को किसी कार्यक्रम या छुट्टियों में आनंद लेते देखते हैं, तो हमें उपेक्षित या ईर्ष्यालु महसूस होता है और यूजर को यही लगता है की वह अपनी ज़िन्दगी में दूसरों के मुक़ाबले पीछे रह गया और दूसरों की तरह किसी भी चीज़ को लेकर अपडेटेड नहीं है। फोमो की वजह से कई बार लोग काफी अकेला, ईर्ष्यालु और दुखी महसूस करते हैं।
4. साइबरबुलिंग का शिकार | Cyberbullying
सोशल मीडिया साइबरबुलिंग जैसे नकारात्मक व्यवहारों के लिए भी एक मंच सा बनता जा रहा है। आपत्तिजनक टिप्पणियाँ, उत्पीड़न और धमकाने से मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है, खासकर युवाओं में। Pew Research Center के एक अध्ययन के अनुसार, 59% अमेरिकी किशोरों ने किसी न किसी रूप में साइबरबुलिंग का अनुभव किया है। साइबरबुलिंग के पीड़ितों को डिप्रेशन, चिंता और आत्मघाती विचारों जैसे मुद्दों का सामना करने की अधिक संभावना है। साइबरबुलिंग से आत्मघाती विचारों में 14.5 प्रतिशत और आत्महत्या के प्रयासों में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि होती है। विशेष रूप से चिंताजनक तथ्य यह है कि 25 वर्ष से कम उम्र के बच्चे और युवा जो साइबरबुलिंग के शिकार हैं, उनमें खुद को नुकसान पहुंचाने और आत्मघाती व्यवहार में शामिल होने की संभावना दोगुनी से भी अधिक होती जा रही है।
5. स्लीपिंग डिसऑर्डर्स | Sleeping Disorders
सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग, खासकर सोने से पहले, नींद के पैटर्न को बदलते जा रहा है। स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी नींद को नियंत्रित करने वाले हार्मोन मेलाटोनिन के उत्पादन में बाधा डालती है। यह तथ्य अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन के शोध से पता चलता है कि 90% युवा बिस्तर पर जाने के एक घंटे के भीतर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग करते हैं, जो नींद की समस्याओं और दिन की थकान में योगदान करता है।
6. फेक न्यूज़ का सर्कुलेशन | Fake News Circulation
सोशल मीडिया अफवाहों को इतना बढ़ा देता है की हम सच तक पहुँच ही नहीं पाते। फेक न्यूज़ का तेजी से स्प्रेड होना, सोशल मीडिया फेक न्यूज़ का मेन सोर्स बन गया है जहाँ पर हर तरह की फेक न्यूज़ बहुत ही तेजी से वायरल हो जाती है। भड़काऊ विचारों को फैलाना इन सोशल मीडिया से बेहद आसान और काफी सस्ता हो गया है। झूठी खबरे और इंफॉर्मेशन कंफ्यूजन, एंजाइटी और डिस्ट्रेस की फीलिंग्स को बढ़ाती है और इन सब से आपके मेंटल हेल्थ पर इंपैक्ट भी उतनी ही तेजी से होता चला जाता है। लोगो इन झूठी खबरे और अफवाहों के मायाजाल में फँसते जा रहे और इस तरह की खबरों को सच मान के अपना लेते है। लोगों का खुद के अस्तित्व और इख्तिहारों पर विश्वास कम होता जा रहा है।
आपके डेटा आपका एडिक्शन
आपने ऐसा कई बार देखा होगा या आपके साथ ऐसा कई बार हुआ होगा की आप किसी मॉल में गए और वहाँ किसी लोकल कंपनी का प्रोडक्ट मुफ्त में दिया जा रहा है तो यकीनन आप भी वहाँ उस प्रोडक्ट को लेने पहुंचे होंगे पर प्रोडक्ट देने से पहले वहाँ आपसे किसी तरह का फॉर्म जरूर भरवाया गया होगा, अपने तकरीबन अपनी सारी जानकारी उस फॉर्म में जरूर भर दी होगी और उस फॉर्म को वहाँ दे कर प्रोडक्ट ले कर चल दिए होंगे। पर आपने कभी सोचा है की उस फॉर्म को आखिर क्यों भरवाया गया, क्या करती है उस फॉर्म का ये प्रोडक्ट देने वाली कंपनी? इसका जवाब यह की आपकी दी गयी जानकारी के आधार पर प्रोडक्ट बनाने वाली लोकल कंपनी विज्ञापन, मेल, मैसेज, कॉल के द्वारा आपसे सम्पर्क करके अपने प्रोडक्ट को बेचती है और पैसे कमाती है। कुछ ऐसा ही सोशल मीडिया के साथ भी होता है आपके द्वारा भरी गयी जानकारी जिसमे आपका नाम, उम्र, पता, लोकेशंस, पसंद और नापसंद दोनों हो मजूद होती है। इन सारी जानकारी को कलेक्ट कर सोशल मीडिया आपके द्वारा भरी जानकारी के आधार पर आपके इंटरेस्ट के वीडियोस, पोस्ट और विज्ञापन को दिखाया जाता है और सिलसिला चलता ही जाता है। सोशल मीडिया के दूसरे ओर बैठे इंजीनियरों और सुपरकम्प्युटर यूजर को अपने इंटरेस्ट की वीडिओज़, पोस्ट और विज्ञापन को दिखाने का काम शुरू कर देता है, यूजर देखते ही चला जाता है और सोशल मीडिया के इस दलदल में डंसता ही जाता है। सोशल मीडिया की लत इतनी भयानक स्तर पर पहुँच चुकी है की जिसका हम और आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते।
क्या है समाधान और निष्कर्ष
सोशल मीडिया की शक्ल और मायने को बदला जा सकता है। यह टेक्नोलॉजी किसी भौतिक शास्त्र पर नहीं चलती इसके सिद्धांत अटल नहीं है, ये बना है हम इंसानो के फैसलों के आधार पर और इन फैसलों को बदला भी जा सकता है। पर सवाल यह है की क्या यह टेक कम्पनियाँ यह मनाने को तैयार है की यह इनके ही बनाये सिद्धांत है जिनके बुरे नतीजे निकल कर सामने आये है। उनकी बनाई चीज़ों को उनको ही बदलना होगा, समाज की भलाई के लिए इन कंपनियों को इस तरह की विनाशकारी बिज़नेस मॉडल से बहार निकलना होगा। समाज, देश और दुनिया को कैसे बेहतर बनाये यह इन कंपनियों का मूल सिद्धांत होना चाहिए। यह सोशल मीडिया जिस आधार पर बनाया गया है वह अपनी दिशा से भटक गया है इसलिए इसे पूरी तरह से बदलना होगा भले ही यह मुश्किल लगे पर ऐसा करना बेहद जरुरी है।
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